भारतीय इतिहास लेखन की विकृतियां: तथ्यों के आइने में
लेखक ,प्रो. सतीष चन्द्र मित्तल सेवानिवृत्त
कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरूक्षेत्र
आमुख
किसी भी देश की वर्तमान पीढ़ी अपने अतीत से प्रेरणा प्राप्त कर भविष्य का निर्माण करती है। प्रेरणा में इतिहास की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए इतिहास का सच्चा शोध जरूरी है, कि इतिहास व्यक्ति और राष्ट्र की चेतना को निर्धारित करता है। सही इतिहास का ज्ञान राष्ट्र को जीवंत बना सकता है तो उसका विकृत स्वरूप राष्ट्र के भविष्य को गर्त में ढकेल सकता है। इतिहास केवल विवरण नहीं होता, बल्कि वह राष्ट्र के उत्थान-पतन, सफलता-असफलता के कारणों को खोजता-जाँचता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इतिहास के दर्पण में वर्तमान की मुखाकृति को देखकर भविष्य की रूपरेखा तैयार होती है।
वैसे इतिहास का अध्ययन और उसका सही आकलन अद्यतन युग से विवाद का विषय है। इतिहास के आकलन और लेखन में भारत की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण रही है। भारतीय इतिहास का लेखन यूरोपीय इतिहासकारों के द्वारा ज्यादा हुआ है। यूरोपीय इतिहासकारों ने जिस अभारतीय दृष्टिकोण से भारतीय वांड्मय, संस्कृति और सभ्यता का मूल्यांकन किया है, वह उनके अपने पूर्वाग्रह और स्वार्थो से ग्रस्त रही है। यही कारण है कि भारतीय पुराणों, ग्रंथों जैसे रामायण और महाभारत को मिथक या कल्पना बताते हुए खारिज करने का प्रयास किया गया। यदि आजादी के पहले यूरोपीय और अंग्रेज इतिहासकारों ने यह कुचेष्टा की, तो आजादी के बाद साम्यवादी और कथित सेक्यूलरवादी सोच के इतिहासकारों ने भी भारतीय इतिहास-बोध को दूषित और विकृत बनाने में राष्ट्रीय अस्मिता को कमजोर करने मंे कोई कम कसर नहीं छोड़ी है।
प्रस्तुत पुस्तक में प्रो. सतीशचन्द्र मित्तल ने भारतीय इतिहास की विसंगतियों और विडम्बनाओं की ओर हमारा ध्यान काफी गंभीर तरीके से खींचा है। प्रो. मित्तल ने वर्षों से चली आ रही इतिहासबोध की भ्रामक धारणाओं को बडे़ ही प्रमाणिक तर्को और संदर्भों से बदलने की पैरवी की है। अपने इस प्रयास के लिए प्रो. मित्तल निश्चित ही साधुवाद के पात्र है। पंचनद शोध संस्थान, इस प्रामाणिक पुस्तक को प्रस्तुत करते हुए गौरवान्वित है। हमें विश्वास है कि हमारा प्रयास भारतीय जनमानस को स्पंदित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और भारतीय जनमानस में राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति गर्व का भाव उत्पन्न करेगा।
प्रो. बी. के. कुठियाला
प्राक्कथन
भारत की प्राचीनतम सभ्यता तथा ब्रिटिष तथा यूरोपीय जगत की आधुनिक सभ्यताओं में इतने हजारों वर्षों का अन्तराल है कि विदेशियों का पहले आश्चर्यचकित फिर सशंकित तथा बाद में भयभीत हो जाना स्वाभाविक है। बाईबिल के आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति, पृथ्वी का जन्म, मनुष्य की विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति, सभी दृष्टि से उनकी अधूरी सोच तथा कल्पनाओं को विचलित कर दिया। ब्रिटिश प्रशासकों तथा इतिहासकारों का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश राज्य को दृढ़ करना, भारत को एक ईसाई देश बनाना, भारत को स्थायी ब्रिटिश कालोनी बनाना तथा व्यक्तिगत रूप से धन प्राप्त करना तथा पदों में उन्नति था। इन कार्यों में ईसाई पादरियों का समूह हमेशा उनका सहायक रहा। अतः उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से भारत के विश्वव्यापी धर्म तथा सांस्कृतिक चिंतन तथा चेतना को विकृत किया, विसंगतिपूर्ण बनाया तथा बिना तथ्यों अथवा प्रमाणों के उसके इतिहास को तोड़ मरोड़ कर, लीपा, पोती कर, काल्पनिक तथा ऐच्छिक विश्लेषण किया।
स्वतंत्रता के पश्चात भी, भारत ने विश्व के अनेक देशों की भांति अपने देश का सही तथा प्रमाणिक इतिहास लिखने का प्रयत्न नहीं किया बल्कि पाश्चात्य अन्धानुकरण तथा पश्चिमकरण उसकी मानसिक गुलामी की विचारधारा बनी रही। इसके साथ ही तथाकथित ‘सेकुलर’ तथा वामपंथी इतिहासकारों ने इसके विकृतिकरण में सहयोग दिया। इनमें से अधिकतर को प्राचीन साहित्य तथा भारत की प्राचीन भाषाओं का या तो ज्ञान ही नहीं या अल्पज्ञान है अथवा अज्ञान है।
यह सही है कि पराधीन भारत के काल में तथ्यों पर आधारित सही इतिहास लिखने, समझने तथा चिंतन के सतत प्रयास होते रहे। इसमें स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी तथा डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के प्रयास महत्वपूर्ण हैं। पिछले दो दशकों में भारतीय इतिहास संकलन योजना ने भी अनेक भ्रांतियों तथा विसंगतियों के ऐतिहासिक धरातल पर देश विदेश में दूर करने का प्रयत्न किया है। आर्य की नस्ल, आर्यों के आक्रमण का अतार्किक वर्णन, द्रविड़ों से उनके मतभेदों की कहानी, विलुप्त सरस्वती को न मानने का भ्रम, रामायण तथा महाभारत को कल्पनिक बताने की मिथक अब इतिहास से कालबाहर्य हो गए हैं। भारतीय काल गणना के सही, प्रामाणिक तथा तथ्यपूर्ण विश्लेषण से महाभारत, महात्मा बुद्ध तथा जगत गुरू शंकराचार्य आदि की कपोल कल्पित तिथियां अतीत की बात हो रही है। मध्यकालीन तथा आधुनिक ऐतिहासिक समस्याओं के विश्लेषण से अनेक नवीन तथ्य सामने आ रहे हैं।
प्रस्तुत लघु ग्रंथ वस्तुतः न ही कोई मौलिक रचना है और न ही कोई संग्रह। बल्कि तथ्यों के आधार पर जागरूक समाज को कुछ प्रमुख भ्रमित इतिहास के विषयों से परिचित करना है। इस दृष्टि से सूत्र/संकेत रूप से लगभग 18 विषयों पर तीन से चार पृष्ठों में चर्चा की गई है। लेखक इस लघु ग्रंथ को तैयार करने में उन सभी विद्वानों, विचारकों, लेखकों तथा इतिहासकारों का ऋणी है जिनका इस लेखन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिला है। लेखक विशेष रूप से पंचनद शोध संस्थान के डायरेक्टर श्री श्याम खोसला तथा प्रो. बी. के. कुठियाला, कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल का अत्यन्त कृतज्ञ हूं जिनकी प्रेरणा तथा प्रोत्साहन से पुस्तक का कार्य पूर्ण हो सका।
आशा है कि भारत के प्रबुद्ध पाठक तथा विशेष रूप से देश की युवा शक्ति, भारतीय इतिहास की इन कुछ भ्रांतियों तथा विसंगतियों से परिचित हो सही इतिहास लिखने तथा जानने के लिए उत्साहित होगी तथा देश को सही दिशा देगी।
मकर संक्रांति, 2013 ई. सतीश चन्द्र मित्तल
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