READ IN ENGLISH अनादि काल से समाज व राष्ट्र के जीवन के सत्यों की समस्त अभिव्यक्तियों की आर्जब एवं अनंत खोज भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा रही है। किसी भी विचार, सिद्धांत या संकल्पना को स्वीकारने से पूर्व तीक्ष्ण एवं संपूर्ण विवेचना करना हमारे बुद्धिजीवी विद्वानों का स्वभाव रहा है। उत्सुक एवं जिज्ञासु अर्जुन ने भगवान कृष्ण से 108 प्रश्न पूछे जिसके परिणामस्वरूप मानव को ज्ञान का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘गीता’ प्राप्त हुई।
गौतम और गार्गी, विश्वामित्र और वशिष्ठ, कर्ण और कपिल, याज्ञवल्कय एवं पतंजलि, महावीर और बुद्ध, शंकर और रामानुजाचार्य, नानक, कबीर, दादु, दयानंद, रमन, रामकृष्ण, रामतीर्थ और विवेकानंद जैसे महान विचारकों ने सत्य की खोज की इसी परंपरा को आगे बढ़ाया जिसके कारण से विश्व में भारत का एक वैशिष्ट्य बना और सांस्कृतिक एकात्मता और राष्ट्र के प्रति के गौरव का भाव उत्पन्न हुआ।
किसी भी क्रियाशील समाज में राष्ट्र को विकास एवं गौरव के पथप्रदर्शन के लिए बुद्धिजीवियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वे केवल नवाचारों के प्रणेता नहीं होते परंतु उनका कार्य राष्ट्र की धरोहर और आधुनिक आवश्यकताओं को एकात्म करने का और वर्तमान की समस्याओं के निवारण का भी होता है। दुर्भाग्यवश कुछ समय के लिए हमारा बुद्धिजीवी वर्ग न केवल मृतप्राय हो गया है परंतु उसे दिशाभ्रम भी हुआ है। हमारा प्रबुद्ध वर्ग विदेशी विचारों और सुझावों को स्वीकार करने के लिए बिना प्रयास के तत्पर है।
ऐसे अनेक बुद्धिजीवी हैं जो स्वभाव से ही भारतीय अवधारणाओं, मूल्यों, परंपराओं, जीवन शैलियों और यहाँ तक कि भारतीय उत्पादों का भी तिरस्कार करते हैं। इसी बीच सामाजिक, आर्थिक एवं व्यवस्था की समस्याओं के कारण से राष्ट्र की एकता एवं सामाजिक समरसता संकटग्रस्त हो गई है। इसलिए अनिवार्य हो गया है कि बौद्धिक स्तर पर इन समस्याओं का उचित समाधान खोजा जाए- ऐसे समाधान जो देश की चिति एवं आवश्यकताओं के अनुरूप हों।
बुद्धिजीवी वर्ग में यह क्षमता है कि वे जनमानस को राष्ट्रीय एकता, सार्वभौमिकता और सामाजिक समरसता का विघटन करने वाली शक्तियों के विरोध में खड़ा कर सकें। वैश्वीकरण के नाम पर आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में जो अवांछनीय प्रयास हो रहे हैं उनसे जूझने के लिए इसके वर्ग बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करना है।
इसी परिपे्रक्ष्य में 1983 में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कुछ जागृत बुद्धिजीवी एवं व्यवसायी कार्यकर्ताओं के समूह ने अनेकों बार विचार-विमर्श किया। इस समूह ने निर्णय लिया कि समाज के विभिन्न वर्गाें में निरन्तर रचनात्मक संवाद बनाने के लिए मंच स्थापित होना चाहिए। मातृभूमि के प्रति समर्पित गैर-शासकीय व लाभ-निरपेक्ष संगठन के उद्देश्यों, कार्याें कार्यप्रणाली पर आम सहमति बनी। परिणामस्वरूप पंचनद शाोध संस्थान की स्थापना हुई।