आर्यों का मूल स्थान

डा. शालिनी अग्रवाल, वैश्य कॉलेज, रोहतक : आर्य’ शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका सबसे प्रचलित अर्थ ‘श्रेष्ठजन’ है| आदर्श, अच्छे ह्रदय वाला, अच्छे गुणों वाला, आदरणीय, सम्माननीय, उत्तम आदि शब्द इसके पर्याय-स्वरूप प्रयुक्त होते हैं|१ ‘आर्यवर्त’(उत्तर-भारत)का वह क्षेत्र था, जहाँ आर्यों ने वैदिक धर्म संस्कृति को संपुष्ट किया| आर्यों का मूलस्थान, आदि-देश क्या है? अर्थात उनका उद्गम स्थल कहाँ था? इस विषय में दुनियां के विद्द्वान इतिहासकारों, प्रबुद्धजनो, भाषा-विदों और वैज्ञानिकों में मतभेद है| अतः आर्य देशी मूल के हैं अथवा विदेशी? जैसे जटिल प्रशन का उत्तर भी भाषाई, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अवधारणाओं तथा आधुनिक वैज्ञानिक अनुवांशिक गुण-सूत्रों के अध्ययनों के माध्यम से पाया जा सकता है|

१७८६ईस्वीं में सर विलियम जोन्स ने कहा की, “संस्कृत, लैटिन, जर्मन तथा कोल्टिक भाषायें एक ही परिवार की हैं,और इनका मूल अर्थ भी एक ही है”| जोन्स के इस विचार से विश्व के बुद्धि-जीवियों में तहलका मच गया और विभिन्न भाषाओँ के शब्दकोश बनने लगे और साथ ही विश्व के अधिकतर लोग स्वयं को आर्यों की संतानें बताने लगे| इसी समय यानि १८वीं १९वींसदी में पाश्चात्य विद्वानों ने आर्य शब्द को एक नस्ल तथा जाति के रूप में प्रयुक्त करते हुए उनकी श्रेष्ठता पाश्चात्य शारीरिक संरचना के आधार पर वर्णित की, “इस जाति के लोग श्रेष्ठ तथा सभ्य थे| वें कद के लम्बें, रंग के गोरे थे| उनकी नाक लम्बी और नुकीली थी| नीली आँखों, चौड़े माथे, चौड़े डील-डौल के आकर्षक एवं बलिष्ठ शरीर वाले होते थे”|आज संसार की लगभग सभी जातियां अपने को आर्यों की संतानें कहलाने में गर्व का अनुभव करती हैं|

वस्तुतः भाषा वैज्ञानिकों ने भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव(monogenic) सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए कहा कि भारोपीय भाषाओँ के बोलने वालों के पूर्वज कहीं एक ही स्थान पर रहते थे और वहीँ से जलवायु परिवर्तन के कारण उस स्थान के रहने योग्य न रहने के कारण विभिन्न देशों को चले गए| मगर भाषाई वैज्ञानिकों के साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण आर्यों की आदि भूमि भी विश्व में कभी मध्यएशिया(मैक्समूलर), ऑस्ट्रिया-हंगरी(डा. पी. गाइल्स तथा प्रोफेसर मैक्दोनाल्ड), स्केंडेनेविया(डा. पेंका), स्वीडेन, नोर्वे जैसे मध्य-यूरोपियन देशों के साथ-साथ आज दक्षिणी रूस के घास के मैदानों में भी ढूंढी जा रही है| भाषाओं की समानताओं के कारण आर्य Indo-Iranian  और  Indo-European भाषाओँ  से सम्बंधित रहे और विदेशी मूल के माने जाने लगे| भारत के निकटतम देश- ईरान के लोगों ने भी अपने धार्मिक ग्रंथों ‘अवेस्ता-शस्त्रों’ में ‘आर्य’ शब्द का प्रयोग स्व-पदनाम के रूप में किया और ‘आर्य’ तथा अंग्रेजी का ‘आर्यन’ शब्द देश के नाम ईरान के व्युत्पत्ति स्त्रोत का निर्माण करता है|

आर्यों के विदेशी मूल का होने के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले पाश्चात्य विद्वानों और उनके अनुयायी भारतीय विद्वानों में लोक-मान्य तिलक और  भारत में १९वीं शताब्दी में आर्य-समाज की स्थापना करने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने प्राकृतिक साम्यताओं के कारण उन्हें विदेशी मूल का बताया है| तिलकने माना कि,   “– जब उत्तरीय धरुवीय प्रदेश में ठंड बढ़ने लगी तो वें इस प्रदेश को छोड़ ईरान और भारत आदि देशों में जाकर बस गए|” उन्होंने यह भी माना कि, “—-It is also clear that Soma juice (taken by the Vedic Aryan’s as Prasad) was extracted and purified at night  in the Arctic.” इस विचार का खंडन नारायण भवानी पावगी ने  किया है| कहते हैं कि, “उत्तरी ध्रुव में सोमलता होती ही नहीं, वह तो हिमालय के एक भाग मुन्जवान पर्वत पर होती है”| तिलक ने अंत में स्वयं भी स्वीकारा कि, ‘आमि मूलवेद अध्ययन करि नाई, आमि साहब अनुवाद पाठ करिया छे’|  स्पष्ठ है कि  तिलक ने मैक्स्मूलर को आधार बनाकर  आर्यों का मूल स्थान स्थापित किया, जो निर्मूल साबित हुआ|

स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी माना कि जब इस पृथ्वी का निर्माण, सम्पूर्ण जलमय संसार में से पृथ्वी का जो भाग सबसे पहले जल से बाहर निकला, वह तिब्बत था और सबसे ऊँचा होने के कारण उसी भाग पर मानव की सृष्टी सबसे पहले हुई| जो मनुष्य वहाँ से उतर कर सबसे पहले भारत में आये वें ही आर्य कहलाये| अत: आर्यों का मूलस्थान तिब्बत है| मगर स्वामी जी ने शीघ्र ही भारतीय साहित्य का गहन अध्ययन कर यह स्वीकारा कि, “आर्यों का बाहर से भारत में आने का, भारतीय साहित्य के किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता| यदि आर्य बाहर से आकर बसे होते तो इतने बडे एतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख उनके साहित्य में न हो, यह असंभव है——|”शिव राम कृष्ण ने भी इसी तथ्य के साथ ही तिब्बत के सिद्धांत को नहीं माना|

पारम्परिक अनुश्रुतियों के आधार पर विद्वानों ने उन्हें मध्य देश, राजमहल की पहाड़ियों, हिमालय तथा विंध्य के बीच के प्रदेश को ‘आर्यवर्त मान कर भारत को ही आर्यों की आदि भूमि माना| इनमें प्रसिद्ध इतिहासकार डा. अविनाश चन्द्र दास ने उन्हें ‘सप्त-सिन्धु (पंजाब और उत्तर पश्चिमी प्रान्त) प्रदेश का बताया| डा. राजबली पाण्डेय, डी. ए. त्रिवेदी तथा डा. संपूर्णानंद ने भी इसी मत को स्वीकारते हुए उनका क्षेत्र राजपूताना, बंगाल तथा बिहार तक माना| एल. डी. क्लब के अनुसार, आर्य लोग पहाड़ी प्रदेश कश्मीर के निवासी थे|

इस प्रकार देशी विदेशी मतों के सिद्धांतो के मध्य में आज भी इतिहासकार  और प्रबुद्ध जन दोराहे पर खड़े हैं| वस्तुतः आर्यों को विदेशी बताने में मैक्समूलर की आर्यन इन्वेज़न की थ्योरी  का बहुत बड़ा योगदान है| भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को ‘आर्यन इन्वेज़न थ्योरी’ कहा गया है| यही हमारी सी. बी. एस. सी. की पुस्तकों में भी पढाया जाता है| इस थ्योरी के अनुसार- आर्यों को घुमंतु कबीलाई बताया गया और ये वो खानाबदोश थे जिनके पास वेद थे, रथ थे, खुद की भाषा थी और उस भाषा की लिपि भी| यानि वें लोग सभ्य, सुसंस्कृत, पढ़े-लिखे खानाबदोश थे| अचरज की बात तो यह है कि ये खानाबदोश नगर सभ्यता (सिन्धु-सभ्यता) से भी श्रेष्ठ एवं सभ्य थे|  

आर्य आक्रमण की इस थ्योरी को आधुनिक पारिकल्पन की अनुसार पूरी तरह से ख़ारिज करने के लिए आधुनिक  जीव वैज्ञानिकों, विचारकों और इतिहासकारों ने आर्य को ‘जाति’ मानने से इनकार कर दिया है और इसे एक सम्मानजनक विशेषण के तौर पर स्वीकार किया है| वस्तुत: भाषा और प्रजाति अनिवार्य रूप से अभिन्न नही है| आज आर्यों की विविध शाखाओं के बहुद्भव(polygenic) होने के सिद्धांत को प्रचारित किया है| इसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा परिवार की सभी जातियां एक ही वंश की रही हों| भाषा का अधिग्रहण तो सम्पर्क और प्रभाव से भी होता आया है| कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा को छोड़ कर विजातीय भाषा को पूर्णत: अपनाया है|

संभवत: पाश्चात्य विद्वानों, जिन्हों ने मैक्समूलर की आर्यों की इन्वेज़न थ्योरी को माना उन्होंने इस थ्योरी को चार बातों से संपुष्ट किया| १. भारतीय इतिहास की शुरुआत सिन्धु सभ्यता से होती है| २. सिन्धुवासी द्राविड थे आर्य नहीं| ३. आर्यों ने बाहर से आकर इस सभ्यता को नष्ट कर वैदिक साम्राज्य को स्थापित किया| ४. आर्यों के द्रविड़ों से निरन्तर झगड़े चलते रहे|

मैक्समूलर ने यह थ्योरी क्यूँ दी या वह तथ्यों से अनभिज्ञ था, कहना मुश्किल है, लेकिन इस विषय में १८६६ और १६ दिस.१८६८ ईसवीं में क्रमशः अपनी पत्नी और भारत के तात्कालिक डयूक आफ़ आर्गायल को लिखे पत्र उल्लेखनीय है – १- “मै यह कार्य पूर्ण करूँगा,—–मेरा यह संस्करण, ‘वेद का आद्यान्त अनुवाद’ जल्द ही भारत के भाग्य—-को निशिचित करेगा| वेद इनके धर्म का मूल हैं|—–इनको यह दिखाना की वह मूल क्या है- उस धर्म को नष्ट करने का एकमात्र उपाय है, जो ३००० वर्षों से वेदों से उत्पन्न हुआ है”| २. “ The ancient religion of India is doomed, if Christianity does not step in , whose fault it be—.” इन पत्रों से उसकी मंशा को यानि कि,  भारत में अंग्रेजी औपनिवेशिक साम्राज्य को स्थापित करने, ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत उत्तर-भारतीयों तथा दक्षिण-भारतीयों में फूट डालने, ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए तथा वैदिक धर्म के मूल को नष्ट करने, और  वैदिक वर्ण व्यवस्था से शूद्रों को अलग करने की प्रक्रिया में समझा जा सकता है|

आर्यों की इन्वेज़न थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती १९२१ईस्वीं में  अचानक से खुदाई में सिन्धु नदी के किनारे मिली सिन्धु सभ्यता ने दी| ऐसे में मैक्समूलर ने अपनी थ्योरी को बचाने हेतू शीघ्र ही यह प्रतिपादित किया कि, सिन्धु सभ्यता आर्यों की सभ्यता से पहले की थी और आर्यों ने बाहर से आकर आक्रमण कर इस सभ्यता के लोगों (द्रविड़ों) को नष्ट कर दिया| इससे सिन्धु सभ्यता के काल में भी मतभेद१० खड़े हो गए| अधिकतर इतिहासकारों ने आर्यों का मूलस्थान मध्य एशिया और इस सभ्यता को २६०० ईसा.पू. अर्थात आज से लगभग ५००० वर्ष पूर्व का माना| कुछ ने ईसा. पू. २७०० से १९०० भी माना| इस सन्दर्भ में हाल ही में प्रकाशित वैज्ञानिक अनुसंधानों की रिपोर्टें, खुदाई से प्राप्त भौतिक अवशेषों के अध्ययन आर्यों के मूल स्थान को निर्धारित करने में उपयोगी हैं|११-१),२),३),५)

I.I.T. खड़गपुर और भारतीय पुरातत्व विभाग के वैज्ञानिकों ने इस सभ्यता का काल ८००० वर्ष पुराना माना| तत्पश्चात २५ मई, २०१६ ईस्वीं में ‘Nature’ नामक रिसर्च पत्रिका में इस १०००० साल पुराना बताया गया| वैज्ञानिकों की इस टीम की शोध-कर्ता आरती देश पांडे (डेक्कन कॉलेज) ने हरियाणा प्रदेश के ‘भिर्राना’ और ‘राखिगढ़ी’ से प्राप्त भौतिक-अवशेषों (pautri, जानवरों की हड्डीयों, सींगों आदि) की कार्बन १४ डेटिंग की जांच से स्थापित किया कि, उस समय की पर्यावरणीय परिस्थितियों के चलते यह सभ्यता उजड़ गई न की आर्यों के आक्रमणों से|

तकनीकियों में कुशल( नगर निर्माण से जहाजों तक का निर्माण करने वाले), महान व्यापारी (सुदूर देशों से भिन्न भिन्न तरीकों से व्यापार करने वाले), मुद्राओं से लेन-देन करने (सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाओं में क्रांति लाने वाले)और अनेक धर्मों की क्रियाओं के समन्वयक (वैदिक और जैन धर्मों से उनके धर्म के साम्यों) सिन्धुवासियों को आर्यों के सदृश ही रक्खा जा सकता है|  एक तरफ़ सिन्धु घाटी (कालीबंगा) से प्राप्त जैन धर्म सम्बन्धी ग्रेनाइट पत्थर की नग्न मूर्तियों और बैल के आकृतियों वाली मूर्तियों को भगवान ऋषभ देव  से जोड़ा जाता तो वहीँ मिट्टी के पके हुए दीपकों, दीपों को  रखने के आलों की पंक्तियों, मात्रि देवी के दोनो ओर दीपों का जलते हुए,कपड़ों के टुकडो, कांसे-ताम्बे की वस्तुओं, चौपड़ की गोटियों, कलात्मक मुहरों, भाव-चित्रात्मक लीपि,लाल रंग से रंगे मिट्टी के बर्तन, विशाल स्नानागार में जल रिसाव को रोकने के लिए चारकोल का प्रयोग, दो पाटों की चक्की, माप-तौल के बटखरों, आइने, कंघी, मिट्टी के खिलौनों, कंगनों और हल जोतने के साक्ष्यों के पाए जाने को हिन्दू-धर्म से जोड़ कर देखा है|

विदेशी विचारकों का कहना कि, १५०० ईसा. पू. से पहले लोग घोड़ों से परिचित नहीं थे, आर्य ही पहली बार घोड़ों पर भारत आये, को आज नवीनतम शोधों के अनुसार स्वीकार नहीं किया जाता| राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के पास ‘बागोर’ में खुदाई में घोड़ों के जो अवशेष मिले हैं वें मध्य-पाषण युगीन बताये गए हैं| मध्य प्रदेश में ‘होशंगाबाद’ में नर्मदा नदी के किनारे ‘आदमगढ़’ में ईसा.पू.९००० से ४००० में यानि मध्य-पाषण युग में प्राचीन पत्थरों पर धनुष-बाण  के उपयोग और घोड़ों पर सवार चित्रों का मिलना इस बात का सूचक है कि १५०० ईसा.पू. से पहले भी भारत में मानव घोड़ों से परिचित थे|

आर्यों द्वारा रचित विश्व की प्राचीनतम पुस्तक ‘ऋग्वेद’  का ज्ञान सभवत: वाचिक युग से ही चला आ रहा है| ऋग्वेद के आठ मंडल प्राचीन है और बाद के मंडल १००० ईसा.से ६०० ईसा. पू. में लिखे गए| पौराणिक संस्कृत साहित्य में आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वालों का वह सभ्य समूह था जिसमें श्वेत, पीत, रक्त, श्याम और अश्वेत रंग के सभी लोग शामिल थे-‘महाकुलकुलीनार्यसभ्य्सज्जनसाधव:’|अमरकोष ७/३

डी.एन.ए. गुणसूत्र पर आधारित शोध में फ़िनलैंड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग १३००० नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया| इन नमूनों के परीक्षण परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप, और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई| इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वे किसी भी धर्म के हो, उत्तर या दक्षिण भारत के, ९९% समान पूर्वजों की संताने हैं| तारतू विश्वविद्यालय के शोध छात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने सिद्ध किया कि सारे भारतवासी अनुवांशिक गुणसूत्र के अनुसार ‘एक ही पूर्वज की संताने हैं’| आर्य और द्रविड़ का कोई भेद इस आधार पर नहीं मिलता, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं, वें दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए जाते|

अनुवांशिक संबंधों की समानता को स्थापित करने में C.C.M.B.१२ सहित हार्वर्ड मेडिकल स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ (अमेरिका ) और M.I.T.१३ के विशेषज्ञों ने  भाग लिया और शोध में  पाया कि भारतीय जनसंख्या असल में प्राचीन कालीन उत्तरी और दक्षिणी भारत का सम्मिश्रण है| इस शोध से जुड़े इस अध्ययन के सह-लेखक ने यह भी बताया कि ७०% भारतीयों में जो अनुवांशिक विकार पाए जाते हैं, कि इस शोध से इन कारणों को जानने में मदद मिलेगी| उन्होंने एक प्रेस कोन्फ्रेंस में यह भी कहा कि, इस शोध के नतीजों के बाद इतिहास को दुबारा लिखने की जरूरत पड सकती है|

हाल ही में, २०१९ में ‘राखीगढ़ी’ (हरियाणा) और मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) से प्राप्त मानव कंकालों का अध्ययन करने वाली टीम के निष्कर्ष स्वरूप कहे गये वक्तव्य उल्लेखनीय हैं—

Professor Shinde , the lead author of the paper states, “ There was no Aryan  invasion,  migration and that all the developments right from the hunting gatherings stage to modern times in South Asia were done by the indigenous people”. The paper also concludes, “Indians came from a genetic pool predominantly belonging to an indigenous ancient civilization”.

 Researcher Dr. Niraj Roy also stated, “There was certainly some mixing and assimilation, but we cannot call that an invasion as we do not find any traces of Central Asian ancestry in the D. N. A. samples.”

इस प्रकार, उपरोक्त वैज्ञानिक अध्ययनों, भाषाओं और प्रजाति के एकोद्भव सिद्धांतों तथा आर्यों एवं द्रविड़ों में भेद की निर्मूलता एवं सांस्कृतिक अध्ययनों  के परिपेक्ष्य में आर्यों के मूलस्थान जैसे जटिल प्रशन का  उत्तर पाया जा सकता है| वैज्ञानिक अनुसंधानिक तथ्यों को इतिहास की पुस्तकों में दिया जाना अपरिहार्य है|

सन्दर्भ-

१.मोनियर विलयमस, ‘संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी’१८९९.संशोधित-२००८-१०| २.सर विलियम जोन्स, ‘संस्कृत लैंग्वेज़’ १७८६|  ३.‘फ्रॉम द आर्यन माइग्रेशन टू कास्ट’|  ४.‘आर्कटिक होम्स इन वेदास’|  ५.नारायण भवानी पावगी, ‘आर्यों वार्तालील आर्याची जन्मभूमि’|  ६.दयानंद सरस्वती, ‘सत्यार्थ प्रकाश’|  ७.शिव रामकृष्ण, ‘वैदिक धर्म एवं सत्यार्थ प्रकाश’|  ८.ए. सी. दास, ‘ऋग्वैदिक इन्डिया’|  ९‘लाइफ एंड लेटर्स ऑफ़ मैक्समूलर’| १०.तिलक तथा जकोबी-६०००-४००० ई.पू., आर. के. मुखर्जी-२५०० ई.पू., आर. एस. शर्मा-१५०० ई.पू., मैक्समूलर-१२००-१०००इ.पू. आदि|  ११.Researches- १) “हम सब प्रवासी हैं, जगह जगह से आये और भारतीय बन गये:” २) “Examining the evidence for ‘Kaliya’ migrations into India: The story of our ancestors and where we came from”.  ३) “The Long Walk: Did the Aryans migrate into India? New genetic study adds to debate”.  ४) “क्या भारत सिर्फ आदिवासी के लिए है”. ५) http://www.gitapress.org/BOOKS/GITA/18/18_Gita.pdf

१२.सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलिक्यूलर बायोलॉजी|  १३.मेसोचसेट इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी|

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