शिक्षा का विकास इस प्रकार होना चाहिए कि उसमें भारतीयत्व प्रकट हो : डॉ. बजरंग लाल गुप्त

Dr. Bajrag Lal Gupta

Dr. Bajrag Lal Gupta

चंडीगढ़, 10 जुलाई  : भारत की शिक्षा व्यवस्था इस देश की प्रकृति, संस्कृति, पर्यावरण, परिवेश, परिस्थिति, सवालों, समस्याओं एवं संसाधनों के अनुरूप विकसित होनी चाहिए। यह कहना है देश के जाने-माने अर्थशास्त्री एवं दिल्ली स्थित एसएसएन कालेज के पूर्व प्रोफेसर बजरंग लाल गुप्त का। श्री गुप्त रविवार को यहां पंजाब विश्विद्यालय के गोल्डन जुबली हाल में शिक्षा के समकालीन विषय पर आयोजित एक दिवसीय सेमिनार को संबोधित कर रहे थे। सेमिनार का आयोजन पंचनद शोध संस्थान और राष्ट्रीय शिक्षा विकास मंच की ओर से किया गया। सेमिनार को देश के जाने-माने शिक्षाविद एवं शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के महासचिव अतुल कोठारी और अहमदाबाद पुनरुत्थान विद्यापीठ की कुलपति श्रीमती इंदुमति कटडरे ने भी संबोधित किया। पंजाब विश्विद्यालय के कुलपति प्रो. अरुण ग्रोवर विशिष्ट अतिथि रहे।

श्री बजरंग लाल गुप्त ने कहा कि शिक्षा का विकास इस प्रकार होना चाहिए कि उसमें भारतीयत्व प्रकट हो। भारतीय जीवन मूल्य, सांस्कृतिक विरासत और गौरवमयी इतिहास को पाठ्यक्रम में समुचित स्थान मिलना चाहिए। देश की समस्याओं और संसाधनों के संदर्भ में भारत की आवश्यकता अनुरूप सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक संरचना निर्माण में दक्ष लोग यहां की शिक्षा पद्धति से निकलने चाहिए। भारत से वैश्विक अपेक्षाएं भी हैं। इसलिए विश्व की नवीनतम तकनीकों का ज्ञान और परंपराओं से सीखकर ज्ञान परंपराओं का आगे बढ़ाना चाहिए।

इस मौके पर श्री अतुल कोठारी ने शिक्षा में राष्ट्रीयता विषय पर सेमिनार को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि सबसे पहले तो राष्ट्रीयता की संकल्पना स्पष्ट होनी चाहिए। किसी भी राष्ट्र के 3 अंगभूत घटक होते हैं। ये हैं- वहां का भूभाग, जन-समाज और संस्कृति। इस राष्ट्र के संचालन और विकास के अनुरूप शिक्षा प्रद्धति का विकास होना चाहिए। पाठ्यक्रम में देश का स्वाभिमान जगाने वाली बातों का समावेश होना चाहिए, न कि क्रांतिकारियों को उग्रवादी बताने वाले तथ्य। उन्होंने कहा कि इस देश के स्कूली पाठ्यक्रम में श्री गुरु गोबिंद सिंह को मुगल दरबार का ‘मनसब’ और श्री गुरु तेगबहादुर को ‘लुटेरा’ पढ़ाया जाता रहा है। इससे देश का स्वाभिमान बढ़ने की बजाय आने वाली पीढ़ियों में गलत संदेश जाता है।

उन्होंने कहा भारतीय ज्ञान परंपरा काफी समृद्ध रही है। यहां के महान गणितज्ञ श्रीरामानुजम, श्री भास्कराचार्य आदि की खोजों को नयी पीढ़ियों के सामने लाना चाहिए। उन्होंने हैरानी जतायी कि श्री भास्कराचार्य की हस्तलिखित 3 डायरियों में गणित के काफी महत्वपूर्ण सूत्र लिखे मिले हैं। इन डायरियों का हाल ही में प्रकाशन करवाया गया। उन्होंने कहा कि किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था वहां की जरूरतों के हिसाब से होनी चाहिए, जैसे इजराइल में सैनिक शिक्षा अनिवार्य है, क्योंकि यह वहां की आवश्यकता है। इसी प्रकार भारत की शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक कार्य अनुभव, समय प्रबंधन, समय और कानून का पालन आदि मुख्य तत्व शामिल होने चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने स्वदेशी, स्वभाषा, स्वभूषा, खानपान, परिवार व्यवस्था आदि पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक बच्चे को उनकी मातृभाषा, देश की संपर्क भाषा हिंदी और ज्ञान का खजाना समेटे संस्कृत भाषा जरूर सिखानी चाहिए। श्री अतुल कोठारी ने कहा कि देश के शैक्षणिक उत्थान के लिए वर्तमान के अनेक लोग प्रयास कर रहे हैं। शिक्षा उत्थान न्यास इस दिशा में ही काम कर रहा है। अनेक अकादमिक संस्थान भी इसके लिए प्रयासरत हैं। सीबीएसई की ओर से वैदिक गणित की शुरुआत को उन्होंने सराहनीय कदम बताया। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि कालीदास विद्यापीठ ने वैदिक गणित आदि पर डिप्लोमा कोर्स शुरू किये हैं।

सेमिनार में सुश्री इंदुमति जी ने व्यक्ति के विकास में शिक्षा का योगदान विषय पर अपना व्यक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि आजकल विकास के संदर्भ आज जो धारणायें प्रचलित वह कुछ संकुचित हैं। विकास के 2 आयाम हैं। पहला-वृद्धि, दूसरा भौतिक विकास। विकास की धारणा को व्यापक रूप से समझने के लिए हमें मनुष्य के स्वरूप को जानना होगा। उन्होंने कहा कि मनुष्य केवल शरीर ही नहीं बल्कि वह शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त का समन्वित रूप है। यह सभी उसकी आत्मा के प्रकट रूप है। उन्होंने कहा कि जब मनुष्य के विकास के बारे में सोचते हैं तो इन पांचों तत्वों के विकास के बारे में सोचना होगा। उन्होंने कहा जब शरीर के विकास की बात हो तो वह स्वस्थ्य, बलवान, कुशल, सुडौल और सहनशील होना चाहिए। इसी प्रकार प्राण संतुलित होना चाहिए,मन एकाग्र, शांत और संयमित हो। बुद्धि के विकास का अर्थ उसके तेजस्वी, विशाल, कुशाग्र होने से है। चित्त के विकास का पैमाना उसकी शुद्धता है।

विकास के दूसरे आयाम भौतिक शिक्षा के बारे में उन्होंने कहा कि मनुष्य का समाज और सृष्टि के साथ समायोजन होना चाहिए। संपूर्ण समाज सुखी, समर्थ और सुसंस्कृत बने इस दिशा में सोचने वाला व्यक्ति तैयार हो। सृष्टि का सही ढंग से रक्षण और संचालन हो, शिक्षा का सही सार्वभौम उद्देश्य होना चाहिए। इसके लिए स्कूली एवं उच्चतर शिक्षा पाठ्यक्रम में व्यापक फेरबदल की आवश्यकता है। इस मौके पर सेमिनार के संयोजक डॉ.संजय कौशिक समेत बड़ी संख्या में शिक्षाविद मौजूद रहे।

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