हमारी लुप्त होती परंपराएं

पार्थसारथि थपलियाल : भारतीय संस्कृति का उद्भव मानव और प्रकृति के साहचर्य के साथ हुआ। तपस्वी ऋषियों को ज्ञान की प्राप्ति हुई उस ज्ञान का उपयोग प्रकृति के साथ मानव व्यवहार को सुसंगत बिठाते हुए सनातन संस्कृति ने पल्लवित, पुष्पित और फलित होना सीखा। विश्व का प्राचीनतम लिखित ज्ञान ऋग्वेद में है जो पांच हज़ार वर्ष से अधिक पुराना है।  सूर्य , सविता, गायत्री, वरुण, पेड़-पौधे, नदियाँ, पर्वत, आकाश सभी की पूजा होती रही है। इसी ज्ञान से वैवाहिक संबंधों की उत्पत्ति हुई और सोलह संस्कार हमारे समाज मे पनपे।अनेक संस्कार खेती के कार्य से जुड़े हैं, कब कब खेती करना कब न करना, एकादशी, पूर्णमासी अमावस से जुड़ी अनेक बातें है जिनका किसान ध्यान रखते थे, घाघ जैसे कवियों ने उसी ज्ञान से कृषि संबंधी महत्वपूर्ण बातें लिखी। मकान निर्माण संबंधी अनेक परंपराएं थी जो नए प्रगति काल मे दिखाई नही देती है। विवाह संबंधी अनेक परंपराएं थी उन सात्विक परंपराओं की जगह दिखावे बढ़ गए हैं। विगत 30-40 वर्षों में वे परंपराएं या तो लुप्त हो गई हैं या क्षीण हो गई है।    परंपराएं क्या होती है? इसकी सीधी परिभाषा तो उपलब्ध नही है, लेकिन समाज द्वारा अपनाए गए नैतिक, सात्विक, मौलिक और उच्च आचार-व्यवहार जिन्हें हम पुराने समाज से लेकर स्वयं अपनाते है और आनेवाले समाज के लिए उसे सुसंस्कृत रखते हुए आगे बढ़ाते हैं। यही परंपरा है। भूतकाल, वर्तमान और भविष्यकाल को देखने की शक्ति परंपराओं में होती है। परंपरा, रीति, रिवाज़, प्रथा, रस्म शब्द करीबी लगते हैं। जिनमे परंपरा और रीति शब्द करीब के हैं। आपने रामचरितमानस में पढ़ा होगा-रघुकुल रीति सदा चलि आई।प्राण जाए पर वच्चन न जाई।।
कई बार लोकजीवन में इस प्रकार के वाक्य सुनने को मिल जाते हैं- ” रीत के गीत तो गाने ही पड़ते हैं।” रस्म एक औपचारिकता होती है। आपने सुना होगा-मुंह दिखाई की रस्म”।। विवाह में लिफाफा पकड़ाने की रस्म इत्यादि। इसी प्रकार रिवाज़ शब्द भी है। यह शब्द उर्दू भाषा का है इसका मतलब है- चलन, व्यवहार में, जैसे- आजकल छोटे छोटे बाल रखने का रिवाज है। इसी प्रकार किसी जाति या समुदाय में अपनाया जाने वाला व्यवहार, प्रथा की श्रेणी में आता है-जैसे बाल विवाह की प्रथा या बलि देने की प्रथा आदि।
     विभिन्न संस्कारों से अलंकृत सनातन संस्कृति के अंतर्निहित पहलुओं पर विचार करें तो हम पाएंगे कि समाज मे भाई-चारा, सामाजिक साहचर्य, मंगलकामनाएं हमारे हर संस्कार के साथ जुड़ी रही हैं। हमारे सोलह संस्कार– गर्भाधान, पुंसवन, जातकर्म, सीमन्तोन्नयन,नामकरण, निष्क्रमण,अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म (बच्चे के बाल पहली बार काटना),कर्णछेदन,  विद्यारंभ, केशान्त,  यज्ञोंपवीत, वेदारम्भ, समावर्तन,विवाह और अंत्येष्टि। इन प्रत्येक संस्कार से जुड़ी अनेक बातें भारत में विभिन्न अंचलों में, समुदायों में अपने अपने ढंग से परंपराओं के रूप में जुड़ी रहती है। इनमें से कई परंपराएं हमारे सामने दम तोड़ चुकी हैं या अब न के बराबर रह गई है।   आपने पढ़ा होगा सीता स्वयम्बर में जनकपुरी की नारियां बारातियों को गाली दे  रही हैं, उपहास कर रही हैं। बाराती भी आनंद ले रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-फीकी पे नीकी लगे जो बोले समझ विचारि।सबका मन हर्षित करे, ज्यों विवाह में गारि।।विवाह का अवसर संस्कार का भी होता था और उत्सव का भी। कम समय मे सामाजिक सम भाव स्थापित करना, इसके पीछे का भाव था। जलपूजा या कुआँ पूजन की परंपरा थी, अब घर घर नल आ गए , पनघट जो मिलनस्थल होता था आधुनिकता ने उसे छीन लिया है।   भारत मे पंच तत्वों के महत्व को बहुत समझा गया। इसलिए पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश की स्वच्छता, निर्मलता और पवित्रता का विशेष ध्यान रखा गया। यह भारत की परंपरा रही है। सुबह पृथ्वी पर पांव रखने से पहले पृथ्वी को नमन करना, जल को प्रदूषित न करना, अग्नि को सम्मान देना, तुलसी, पीपल आदि को जल चढ़ाने, न जाने कितनी बातें समाज मे व्यवहार के रूप में थी वे लुप्त हो गई हैं।   कुछ परंपराएं जो समाज मे रही लेकिन अब लुप्त हो रही हैं, उदाहरण के तौर पर कुछ का संकेत किया जा रहा हैं-सामाजिक परंपराएं-    अपने से बड़ों के पैर छूना, बड़ों के सामने जोर से न बोलना, महिलाओं का सम्मान करना, संयुक्त परिवार में रहना, दादी-नानी का कहानी सुनाना, माताओं द्वारा बच्चों को लोरी गाकर सुलाना, हाथ जोड़कर अभिवादन करना, मटकी का पानी, बिना स्नान किये रसोई में न जाना, पहली रोटी गाय की अंतिम रोटी कुत्ते की नीयत होना, पहले बड़े बुजुर्गो और बच्चों को भोजन कराना, मर्दों का शिखा-सूत्र होना, धोती-कुर्ता, पगड़ी/साफा या टोपी पहनना, मंदिर जाना, कमसे कम दिन में दो बार भगवान को दिया बत्ती सहित याद करना,खुशी के मौके पर गुड़ या मिठाई बांटना, सुबह सुबह दांतुन करना, तिलक लगाना, अतिथि के विदाई के समय भी तिलक करना,16 संस्कारों में से अधिकांश तो पहले ही गायब थे, बचे-खुचे भी औपचारिकता के तौर पर ही जीवित है। गोद भराई की रस्म या सौहर गाने का रिवाज शहरों में कहीं दिखाई नही देता।
जीवनोपयोगी और लोक कलाएं-
    समाज मे वैकल्पिक सुविधाएं मिली तो टट्टू गायब,घोड़ा गायब, ऊंट गायब, बैल गायब। परंपरा से ये सभी मनुष्य के साथ थे। आधुनिक खेलों ने हमारे पारंपरिक खेल खत्म कर दिए। पिठ्ठू, सतोलिया, गुलिडण्डा, चार-भर, शेर-बकरी आदि खेल हमारी खेल परंपरा से बाहर हो गए। भाट, चारण, नट, विरदावली गायक,किस्सा गो आदि समाज के आधुनिकीकरण के कारण अब इरले विरले ही मिलेंगे। वे लोग सामाजिक परम्पराओं के अच्छे जानकार होते थे। लोकसंगीत में खानदानी गायकों कोई सहारा देने वाला नही , बारा मासा, फाग,  चैती, कजरी, विरहा, झोड़ा, छपेली, थड़िया, नाटी, लोहड़ी, बाउल गीत के  पारंपरिक लोककलाकार लुप्त हो रहे हैं।अनेक कलावंत जातियों ने अपने पुस्तैनी काम छोड़ दिये – मोची, लुहार, कोली, ढोली, मांगणियार और कई अन्य कामगार लोगों ने अपने काम बदल दिए है। मीडिया का ये असर हुआ कि लोकनाट्य परंपरा जो गांवों में थी सिसकती हुई दम तोड़ रही है।
  यह केवल उदाहरण के लिए बताए हैं। हर समाज, समुदाय और अंचल में विभिन्न परंपराएं थी जो अब नगण्य रह गई है। उनके बारे में बताया जाना, लिखा जाना बहुत जरुरी है। आप विचार करें पहले कौन सी परंपरा थी जो अब नही रही। लो खत्म हो गई हैं या खत्म होने के करीब हैं, उन सब को पहले एक पेपर पर लिखें, अगर उसका विवरण दे सकते हैं तो दें। नही यो सूची तो अवश्य बनाएं।परंपराएं अच्छे कार्य व्यवहार होते हैं जबकि रूढ़ियाँ तोड़ने के लिए होती हैं- छुआछूत, बेटा-बेटी का भेद, स्त्री-पुरुष में भेदभाव, बाल विवाह, दहेज प्रथा इत्यादि कुरीतियां रूढ़ियों की श्रेणी में आते हैं। ये परंपराएं नही हैं।

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